कहानी का शीर्षक: "वो जो कभी बोल न सका – मेरा दोस्त ब्रूनो"
भूमिका
गाँव के एक कोने में एक पुराना मिट्टी का घर था, जहाँ एक युवक "विवेक" अपनी बूढ़ी दादी के साथ रहता था। उसके माता-पिता का साया बचपन में ही उठ गया था। अकेलापन उसके जीवन का हिस्सा बन चुका था… लेकिन फिर उसकी ज़िंदगी में एक ऐसा साथी आया जिसने उसके सूनेपन को जैसे जीवन दे दिया — एक घायल पिल्ला, जिसे उसने "ब्रूनो" नाम दिया।
कहानी की शुरुआत
एक बरसात की रात थी।
गाँव की बिजली गुल थी और चारों ओर कीचड़ और अंधेरा था। विवेक खाना खाकर जैसे ही अपने खाट पर बैठा, तभी उसे कच्ची सड़क के किनारे से किसी के कराहने की आवाज़ आई। टॉर्च लेकर वह बाहर निकला, तो देखा एक छोटा पिल्ला काँपता हुआ पड़ा है, शायद किसी ने मारकर फेंका था।
उसे देखकर विवेक का दिल भर आया। उसने बिना एक पल गँवाए उसे गोद में उठाया और घर ले आया। दादी ने भी उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, "बेटा, भगवान ने शायद तुझे एक साथी भेजा है… इसका ध्यान रखना।"
ब्रूनो की देखभाल और दोस्ती की शुरुआत
विवेक ने पूरे मन से उस पिल्ले का इलाज करवाया, दवा दी, दूध पिलाया और
धीरे-धीरे वो पिल्ला चलने लगा। उसने उसका नाम "ब्रूनो" रखा। ब्रूनो बहुत जल्दी विवेक का सबसे प्यारा दोस्त बन गया। वो दोनों खेतों में जाते, नहर किनारे बैठते, मंदिर के बाहर बैठकर प्रसाद खाते।
जहाँ गाँव के बाकी लड़के मोबाइल में व्यस्त थे, वहाँ विवेक का दिन ब्रूनो के साथ बीतता। वो उससे बात करता, उसे अपने सपनों के बारे में बताता, यहाँ तक कि जब कभी मन दुखी होता,
तो ब्रूनो के सीने से लगकर रो लेता।
ब्रूनो भले बोल नहीं सकता था, लेकिन उसकी आँखें सब समझती थीं।
एक परीक्षा की घड़ी
विवेक ने 12वीं अच्छे अंकों से पास की और शहर जाकर कॉलेज की पढ़ाई शुरू की। लेकिन दिक्कत ये थी कि हॉस्टल में पालतू जानवर की अनुमति नहीं थी। विवेक ने बहुत कोशिश की कि ब्रूनो को साथ ले जा सके, लेकिन नियम सख्त थे।
अंत में, भारी मन से उसे ब्रूनो को गाँव में दादी के पास छोड़ना पड़ा। वो हर हफ्ते आता, ब्रूनो दौड़कर उसके गले लग जाता। उस मिलन के पलों में इतनी आत्मीयता होती थी, मानो एक बेटा अपने पिता से मिल रहा हो।
दर्द का वो दिन
तीसरे साल की पढ़ाई चल रही थी। एक दिन विवेक को दादी का फ़ोन आया — “बेटा… ब्रूनो ठीक नहीं है… कुछ खा नहीं रहा।”
विवेक ने बिना कुछ सोचे ट्रेन पकड़ी और गाँव पहुँच गया। वहाँ देखा, ब्रूनो चुपचाप आँखें मूँदे लेटा है। उसकी साँसें धीमी हो रही थीं।
विवेक ने उसे गोद में उठाया, उसके सिर पर हाथ फेरा और रोते हुए बोला, “ब्रूनो… उठ ना यार… देख मैं आ गया।”
ब्रूनो ने धीरे से आँखें खोलीं, उसकी ओर देखा, और फिर एक आखिरी साँस लेकर दुनिया से चला गया…
शून्यता और सबक
ब्रूनो की मौत ने विवेक को तोड़ दिया। वो दिन-रात बस चुप रहने लगा। कोई दोस्त, कोई किताब, कोई सोशल मीडिया —
कुछ भी उस दर्द को नहीं भर पाया।
लेकिन एक दिन वो गाँव के मंदिर के पास बैठा था, जहाँ वो और ब्रूनो बचपन में खेलते थे। एक छोटा बच्चा वहाँ आकर बोला, “भैया, वो कुत्ता बहुत प्यारा था। जब भी मुझे रोता देखता, अपनी पूँछ हिलाकर मेरे पास आ जाता था।”
विवेक को जैसे झटका लगा — ब्रूनो सिर्फ उसका नहीं था… वो पूरे गाँव का प्यार बन चुका था।
एक नया अध्याय
कुछ महीनों बाद विवेक ने अपने गाँव में एक छोटा "Animal Shelter" शुरू किया — “ब्रूनो के साथी।”
वहाँ घायल,
भूखे, बेसहारा कुत्तों और जानवरों की देखभाल की जाती थी। वह shelter अब गाँव की शान बन चुका था।
विवेक जब भी shelter के दरवाजे पर खड़ा होता है, उसे लगता है जैसे ब्रूनो वहीं पास में बैठा है — पूँछ हिलाता हुआ, वही पुरानी मुस्कान के साथ।
निष्कर्ष
इस कहानी में कोई संवाद नहीं, पर एक भावनात्मक संवाद है — उस निःशब्द जानवर और एक टूटे हुए इंसान के बीच।
प्यार सिर्फ बोलने से नहीं, निभाने से होता है।
ब्रूनो जैसा साथी भले हर किसी को न मिले, लेकिन हम हर जीव को इंसानियत और प्रेम दे सकते हैं।



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