(एक दिल को छू लेने वाली मित्रता की कहानी)
पात्र:
नैतिक – एक अंतर्मुखी, गंभीर, लेकिन सच्चा और वफ़ादार लड़का
राहुल – ज़िंदादिल, खुला मिज़ाज और बेहद मिलनसार लड़का ।
शुरुआत
बारहवीं का पहला दिन था। दिल्ली का गर्म दिन, क्लास में पंखा चल रहा था, मगर कुछ चेहरों पर बेचैनी थी — खासकर नैतिक के।
वो क्लास के कोने में बैठा खिड़की के बाहर देख रहा था। नए स्कूल में नए लोग… किसी से बात करने का मन नहीं था।
तभी अचानक किसी ने पीठ पर हाथ रखा और कहा,
"क्या नाम है तेरा? अकेला क्यों बैठा है?"
नैतिक थोड़ा चौंका। सामने एक लड़का खड़ा था, हँसता हुआ।
"मैं राहुल हूँ, चल यार, मस्ती करेंगे, क्लास तो वैसे भी बोरिंग है!"
नैतिक ने हल्की मुस्कान दी।
उस एक मुलाकात से एक ऐसी दोस्ती की शुरुआत हुई जो आने वाले कई सालों तक एक बेंच, एक पार्क और दो दिलों के बीच अटूट रिश्ता बन जाएगी।
दोस्ती का रंग
राहुल और नैतिक एक-दूसरे के बिल्कुल उलट थे।
राहुल मस्तीखोर, बातूनी, जोश से भरा हुआ — तो नैतिक शांत, सोचने वाला, थोड़े शब्दों में गहरी बात कहने वाला।
फिर भी दोनों एक-दूसरे को समझते थे जैसे आइना।
हर शाम दोनों स्कूल के पास वाले पुराने पार्क में जाकर एक ही बेंच पर बैठते। वहीं बातें होतीं — सपनों की, ज़िंदगी की, डर की, प्यार की… और कई बार बस चुप्पी भी।
राहुल हमेशा कहता था,
"अगर कभी लगे कि दुनिया समझ नहीं रही, तो इस बेंच पर आ जाना। मैं ना भी रहूं, तो तुझे तेरा सुकून मिल जाएगा।"
नैतिक बस मुस्करा देता था, क्योंकि उसे पता था – राहुल से अच्छा दोस्त उसे कभी नहीं मिलेगा।
समय की चाल
समय बीतता गया। बारहवीं खत्म हुई। दोनों ने एक ही कॉलेज में दाखिला लिया लेकिन अलग-अलग डिपार्टमेंट में।
कॉलेज की व्यस्त ज़िंदगी ने मिलने का समय थोड़ा कम कर दिया, लेकिन पार्क की वो बेंच आज भी उनकी मुलाकात की जगह बनी रही।
हर रविवार शाम वो वहीं बैठते। कभी चाय पीते, कभी ज़िंदगी की चिंता करते, कभी चुपचाप सूर्यास्त देखते।
फिर एक दिन राहुल ने खबर दी —
"मुझे यूएस की एक बड़ी कंपनी में ऑफर मिला है। जाना पड़ेगा कुछ महीनों के लिए।"
नैतिक चुप हो गया। कुछ देर बाद बोला,
"जा, लेकिन भूल मत जाना कि तेरा सबसे अच्छा दोस्त इस बेंच पर तेरा इंतज़ार करेगा।"
राहुल ने उसका हाथ पकड़ा और कहा,
"अरे पगले, तू ही तो है मेरा घर, मेरा भरोसा। कभी भूला है तुझे?"
बदलाव की शुरुआत
राहुल यूएस चला गया। शुरू-शुरू में रोज़ बातें होती थीं। फिर हफ्ते में, फिर महीने में। धीरे-धीरे ज़िंदगी ने दोनों को अपनी-अपनी रफ्तार में खींच लिया।
नैतिक अब एक नौकरी में था। सब कुछ ठीक था — लेकिन कुछ अधूरा था।
हर रविवार वो अब भी उसी पार्क जाता। उसी बेंच पर बैठता। लोग आते-जाते, कुछ चौंकते कि एक आदमी हर हफ्ते उसी बेंच पर अकेला क्यों बैठता है।
कभी-कभी कोई पूछता,
"भाईसाहब, रोज़ क्यों आते हो?"
वो बस हल्के से मुस्कुरा देता और कहता,
"क्योंकि दोस्ती का पता हमेशा यही था।"
वापसी
एक शाम नैतिक बेंच पर बैठा चाय पी रहा था। आँखें बंद कर ली थीं।
तभी किसी ने पास आकर कहा,
"अब भी वही पुरानी बेंच? बदला कुछ नहीं?"
नैतिक ने धीरे से आँखें खोलीं।
सामने राहुल खड़ा था।
थोड़ा थका हुआ, पर वही मुस्कान, वही गर्मजोशी।
"मुझे लगा तुझे भूला दूँगा… पर तू हर रोज़ ख्यालों में यहीं बैठा मिलता था इस बेंच पर," राहुल बोला।
नैतिक कुछ नहीं बोला। बस गले लग गया। और दोनों ऐसे चुपचाप बैठे जैसे कभी दूर ही ना हुए हों।
अंत नहीं, नई शुरुआत
राहुल अब इंडिया लौट आया था, और हर रविवार दोनों फिर उसी बेंच पर बैठते थे।
अब भी बातें होती थीं — नई ज़िंदगी की, पुरानी यादों की, और कभी-कभी बस चुप्पी में भी बहुत कुछ कहा जाता था।
सीख:
> सच्ची दोस्ती ना वक़्त से कमजोर होती है, ना दूरी से।
वो बस एक भरोसे पर टिकी होती है,
और कभी-कभी… एक पुरानी बेंच पर।



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